केदारनाथ आपदा : आपदा के बीते सात साल लेकिन ज़ख्म आज भी हैं ताज़ा

केदारनाथ धाम में आई आपदा को आज सात साल पूरे हो गए हैं, आपदा भले ही सात साल पुरानी हो पर इसके ज़ख्म आज भी हरे है।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पर्वतीय सुनामी में उत्तराखंड राज्य में करीब साढ़े पांच हज़ार लोगों की जाने गयी थी,जिनमे से कइयों का तो आज भी पता नही कि उनकी लाशें कहाँ गुम हो गयी,जिनकी जान उस आपदा में गयी उनमें से कई लोगो की पहचान नही हो सकी।बड़ी संख्या में लोग बेघर हुए,अपनो का साथ छूटा तो कई अपनी सुध ही खो बैठे,तकरीबन 4200 गांवों से पूरी तरह सम्पर्क टूट गया था,छोटे बड़े पुल मिलाकर 175 के करीब पुल बह गए,सड़के खाई में समा गई,सैकड़ो हैक्टेयर कृषि भूमि को आसमानी कहर ले डूबा।सेना के कई जवान इस आपदा में शहीद हुए।



सात साल की आपदा सात हजार से ज़्यादा ज़ख्म दे गयी,लेकिन कहते हैं कि हर बर्बादी की एक नई सुबह होती है केदारनाथ धाम में भी नई सुबह हुई आपदा के निशानों की मरहम पट्टी करने में सरकार का साथ स्थानीय लोगों ने भी दिया।सरकारी मुआवजे से थोड़ी राहत ज़रूर मिली लेकिन जो मुआवजा पीड़ित परिवारो को दिया गया उससे महज़ एक साल तक ही गुजारा किया जा सकता था। केदारघाटी आपदा पीड़ित विस्थापन और पुनर्वास संघर्ष समिति के आंदोलन के फलस्वरूप उस साल राज्य सरकार ने मानकों में कुछ फेरबदल किया,जिसके बाद बेघर हुए लोगो को प्रति वयस्क को परिवार मानते हुए सात लाख रुपये भवन निर्माण के लिए दिए ये जानकारी सरकार द्वारा दी गयी,इसकी ज़मीनी हकीकत सामने नही आई,क्योंकि सरकार का ये मानक एक ही वर्ष चला।





उत्तराखंड का प्राकृतिक आपदाओं से पुराना रिश्ता है,बाढ़ आने,बादल फटना, भूस्खलन,बिजली गिरना, भूकम्प जैसी आपदाएं पहाड़ो पर होती रहती हैं,पहाड़ी जीवन इन आपदाओं के अभिन्न हिस्सा है कहा जाए तो अतिश्योक्ति नही होगी,पहाड़ी इलाकों के लोग इन आपदाओं के साथ तालमेल बैठाकर अपना जीवन यापन करते हैं, लेकिन भयंकर आपदा आने पर इन्ही लोगो की ज़िंदगी दांव पर लगती है।उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में 1803 में आये भूकम्प का उल्लेख कई किताबो में मिलता है जो "गढ़वाल अर्थ क्वेक" के नाम से भी जाना जाता है।इस भूकम्प ने पूरे उत्तर भारत को हिला कर रख दिया था,गढ़वाल में तब भारी तबाही मची,ऐसा भी कहा जाता है उस भूकम्प का फायदा गोरखाओं ने राजनीति परिस्थितियों को देखते हुए उठाया और 1804 में गढ़वाल क्षेत्र गोरखाओं के कब्जे में आ गया।

कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल में 1880 में हुए भूस्खलन से नैनीताल का नक्शा ही बदल गया ,इसी तरह कई घटनाएं प्रकृतिक कहर को दर्शाती हैं।





प्राकृतिक आपदाएं रोकी तो नही जा सकती लेकिन ठोस प्रबंधन एयर तकनीकी नीतियां बनाकर आपदा से होने वाले नुकसान को न्यून किया जा सकता है।आपदा प्रबंधन तंत्र मजबूत और प्रभावी हो तो मौसम बदलने के पहले ही तैयारियां की जा सकती हैं।केदारनाथ धाम में आई आपदा के बाद बड़ी बड़ी घोषणाएं हुई हालांकि केंद्र और राज्य सरकार ने  केदारनाथ धाम का स्वरूप काफी हद तक बदल दिया है,लेकिन जिन्होंने उस आपदा में अपना सब कुछ खो दिया उनके ज़ख्म तो आज भी ताज़े ही है।