लॉक डाउन - पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में घास खाने को मजबूर हुए नन्हे मासूम।

कोरोना वायरस से निबटने के लिए जब तक कोई वैक्सीन नही बन जाती तब लॉक डाउन करना ही सबसे बेहतर उपाय है इससे डिस्टेनसिंग बनी रहेगी,लेकिन क्या आधी रात को अचानक से पूरे देश मे लॉक डाउन की घोषणा करना क्या सरकार का सही कदम था? शायद नहीं ! जो जहाँ था वो वही रह गया,कई लोग अपने घर नही जा सके कुछ लोग अब भी स्टेशनों मे रात काट रहे हैं,इतना ही नही लॉक डाउन के एलान में इतना समय भी नही दिया गया कि लोग अपने खाने पीने का तो बंदोबस्त कर लेते,उच्च और मध्यम वर्ग को छोड़ कर सरकार एक बार झोपड़ पट्टी में रहने वाले ग़रीबो के बारे में ज़रा तो सोच लेना चाहिए था।उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग के परिवारों में तो हमेशा ही 20 से 30 दिन का राशन भरा ही रहता है लेकिन देशभर के दैनिक कार्यों से अपनी गुजर बसर करने वाले मजदूरों को इस वक्त खाने के भी लाले पड़ गए हैं ।बीते बुधवार को ऐसी ही दिल को झकझोर देने वाली मार्मिक तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई जिसमे कुछ बच्चे बैठे हुए है और घास खा रहे हैं,जिसे ये बच्चे 'अकरी' बोल रहे थे ,गिनती में भले ही ये बच्चे 6 थे लेकिन इनके घास खाने की तस्वीर हमारे 135 करोड़ के देश की लापरवाही दर्शाते हैं कि देखो यहां मुकेश अम्बानी जैसे अरबपति और करोड़ो में खेलने वाले नेता,अभिनेता,खिलाड़ी सब हैं  इनमें से शायद ही किसी को खाने पीने का रोना रोते किसी ने देखा होगा इनके इतने अमीर होने के बाद भी बच्चे घास खा रहे हैं ? ये तस्वीर आने वाले भविष्य का क्रूर रूप दर्शा रही है कि कल कोरोना से शायद इतनी मौते ना हो पर भारत मे भुखमरी से कई जाने जा सकती हैं।सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक ये तस्वीर मुसहर प्रजाति के बच्चों की है जो कोइरीपुर गांव बड़ागांव ब्लॉक वाराणसी जिले में है,वाराणसी पीएम नरेंद्र मोदी का भी संसदीय क्षेत्र है ,अचानक हुए लॉक डाउन से ये गरीब खाने पीने की भी व्यवस्था ठीक से नही कर पाए,तीन दिन बीत जाने के बाद जब भूख बर्दाश्त नही हुई तब येमासूम घास खाने पर मजबूर हो गए,इन बच्चों का नाम रानी , पूजा, विशाल, नीरू, सोनी और गोलू बताया जा रहा है,जब इन बच्चों से भूख बर्दाश्त नही हुई तब ये घास में नमक छिड़कर ही खाने को मजबूर हो गए।इस गांव की एक महिला ने लोकल मीडिया को बताया कि कुछ दिनों से यहां लोग मौत के बहुत करीब आ चुके हैं मेरे बच्चे भी बहुत भूखे थे उन्हें नमक डाल कर घास खानी पड़ी और पानी पीकर ही गुजारा करना पड़ा।हम प्रधान के पास भी गए थे लेकिन उसने हमारी मदद नही की प्रधान ने कहा कि जो उससे हो सकेगा वो देखेगा,3-4 दिन बाद ही हमे कुछ खाना मिल गया'। 


सौजन्य दि वायर।


ये खाना करीब 15 किलो के आसपास होगा लेकिन इतना खाना क्या काफी था  वहाँ रहने वाले सभी बस्ती वालों के लिए? इलाके के पूर्व विधायक अजय राय ने भी राहत सामग्री इन बस्तियों में पहुँचवाई,उनके मुताबिक पिछले दो तीन दिन से बस्तियों में रहने वाले लोगो ने कुछ नही खाया था,मैं इस इलाके का विधायक रह चुका हूं मुझे अचानक हुए लॉक डाउन में ये अंदाज़ा था कि मुसहर  प्रजाति के इन लोगों को बहुत दिक़्क़तों का सामना करना पड़ेगा और वही हुआ,ये लोग गांव के पास ही ईंटो को उठाने का काम करते हैं इनकी दिक़्क़तों को देखते हुए फिलहाल तीन दिनों का खाना हमने इन तक पहुंचवा दिया है,इस इलाके में रहने वाले ये गरीब सेनिटाइजर का सपना ही देख सकते है इनके पास तो पर्याप्त मात्रा में साबुन भी नही होगा,ये सोचकर हमने खाने के साथ साथ कुछ साबुन भी भेजे हैं"।

इस तरह के हालात और भी ना जाने देश के किन किन हिस्सो में पैदा हो चुके होंगे,इसके लिए ज़रूरी है कि स्थानीय विधायक,सांसद, नगरपालिका,पार्षद, अध्यक्ष, पुलिस, जिला प्रशासन, राज्य सरकार एनजीओ इत्यादि ऐसे ग़रीबो की मदद के लिए आगे आएं,ताकि देश मे ऐसे हालात भूख की वजह से तो ना ही बने।

लोकल मीडिया में जब ये खबर वायरल हुई तब कई लोग ये कहते हुए भी देखे गए कि तस्वीर में घास नही बल्कि चने के झाड़ हैं और बच्चे चने खा रहे हैं,आप ज़रा खुद देखिए इस तस्वीर को ,और मान भी लिया जाए कि ये बच्चे चने ही खा रहे थे तब भी आज वास्तव में ऐसे ही गरीब तबके के लोगो को मदद की ज़रूरत है,क्योंकि चने के झाड़ से कच्चे चने रोज़ निकाल कर कोई कब तक खायेगा ।